चतु:श्लोकी भागवत- चार श्लोक में सम्पूर्ण भागवत का फल
हिन्दुओ की आस्था के प्रतीक और ज्ञान देने वाले वेद और पुराणों को धर्म का आधार माना गया है | इन वेदों के सार को १८ महापुराणों में महर्षि वेद व्यास जी ने उतारा | इसमे एक है श्री मद भागवत पुराण (श्रीमद्भागवतम् ) | इसे सभी पुराणों में से नितांत महत्वपूर्ण तथा प्रख्यात पुराण की संज्ञा प्राप्त है |
चार श्लोको में सार है श्रीमद्भागवत का
आज की व्यस्त दिनचर्या में यदि किसी व्यक्ति का सम्पूर्ण भागवत पढना कठिन हो जाता है | अत: शास्त्रों अनुसार ब्रह्माजी द्वारा विष्णु की स्तुति किए जाने पर उन्हें सम्पूर्ण भागवत-तत्त्व का उपदेश केवल चार श्लोकों में दिया था |
इसे चतु:श्लोकी भागवत कहा जाता है। इसका रोज पाठ करने से पापो का नाश , आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति होती है | व्यक्ति में अज्ञान रूपी अंधकार दूर होकर ज्ञान रूपी सूर्य प्रकाश फैलाता है |
पढ़े : गीता के श्लोक एवं भावार्थ
चतु:श्लोकी भागवत
श्लोक- 1
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद यत् सदसत परम।
पश्चादहं यदेतच्च योSवशिष्येत सोSस्म्यहम
अर्थ- सृष्टि से पूर्व केवल मैं ही था। सत्, असत या उससे परे मुझसे भिन्न कुछ नहीं था। सृष्टी न रहने पर (प्रलयकाल में) भी मैं ही रहता हूं। यह सब सृष्टीरूप भी मैं ही हूँ और जो कुछ इस सृष्टी, स्थिति तथा प्रलय से बचा रहता है, वह भी मैं ही हूं।
श्लोक-2
ऋतेSर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो माया यथाSSभासो यथा तम:
अर्थ- जो मुझ मूल तत्त्व को छोड़कर प्रतीत होता है और आत्मा में प्रतीत नहीं होता, उसे आत्मा की माया समझो। जैसे (वस्तु का) प्रतिबिम्ब अथवा अंधकार (छाया) होता है।
श्लोक-3
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम॥
अर्थ- जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं (नारायण ) भी विश्व में व्यापक होने पर भी सांसारिक आँखों से दिख नही पाता ।
श्लोक-4
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाSSत्मन:। अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा॥
अर्थ- आत्मतत्त्व को जानने की इच्छा रखनेवाले के लिए इतना ही जानने योग्य है की अन्वय (सृष्टी) अथवा व्यतिरेक (प्रलय) क्रम में जो तत्त्व सर्वत्र एवं सर्वदा रहता है, वही आत्मतत्व है।
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